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Thursday, April 10, 2008

जीत

दफ्तर की मस्त मस्त छोरियां
दिलफेंक अदा
मस्त निगाहें
कातिल हैं इशारे
आशिक भी कम नहीं
हाथ पकड़
नैनों से जकड़
खोली पर बुलावा
उफ्प ये नज़र
उफ्फ ये ज़िगर
कई बार मचलता है
दिल होता नहीं
जुबान फड़कती है
इश्क, चुम्मन नहीं
ये बात कुछ और है
समझा करो, समझा करो, समझा करो
भोर की शिफ्ट में
लड़कियां टहलती हैं
हैरान सी परेशान सी
अधरों से कभी
वो बात भी फिसलती है
समझो तो सही
हर लफ्ज़ में काम है...
हैरान सी परेशान सी
मासूम नहीं नैन सही
बालों में उंगली के फांदे का इशारा






1 comment:

Unknown said...

बेहतरीन है आपका अंदाज-ए-बयां..आपके दिल का दर्द समझ गया ये जहां