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Tuesday, November 11, 2014

किस्स” की क्रांति 

अर्चना राजहंस मधुकर


बड़ी बड़ी क्रांति का उदय दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में होता रहा है। साथ ही क्रांति को गोद लेने की भी परंपरा यहां खूब रही है। वामपंथ का गढ़ रही इस धरती ने बहुत से प्रगतिशील विचार इस देश को दिए हैं जिसपर चढ़कर भारत, इंडिया बना। अभी-अभी जिस क्रांति को इस विश्वविद्यालय के छात्रों ने गोद लिया है वह है लिप लॉक क्रांति। हिंदी में लिप लॉक का भावार्थ कुछ इस तरह से निकाला जा सकता है कि एक व्यक्ति जब किसी दूसरे व्यक्ति के होंठो को अपने होठों से ताला जड़ित कर दे तो वह हुआ लिप लॉक यानी किस ऑफ लव। इसके पीछे तुर्रा ये है कि इससे महिलाएं अपनी आजादी का उदघोष कर पाएंगी।

बैंगलोर से शुरू हए इस अजीबोगरीब (कमसकम भारत जैसे देश के लिए तो ये अजीबोगरीब ही है क्योंकि यहां लिपलॉक जानते भी कितने लोग हैं ये अलग बात है कि बहुपयोगी हैं।) हां, तो क्रांतिकारी छात्रों ने आह्वान किया है कि वो इसे आंदोलन बना देंगे। इन छात्रों को बाकी विश्विद्यालयों मसलन जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अंबेडकर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय आदी के छात्रों का समर्थन भी प्राप्त है।
भाई एवं बहन लोगों ने शनिवार को जेएनयू के गंगा ढाबा में जमकर प्रदर्शन करने के बाद दिल्ली के झंडेवाला स्थित आरएसएस के दफ्तर के सामने भी प्रदर्शन किया।

इन छात्रों का मानना है कि आरएसएस ने बैंगलूरू में होने वाले इनके कार्यक्रम को खारिज कर दिया जोकि नाजायज था तुर्रा ये कि एक प्रगतिशील देश जो कि भारत है, उस देश में किस ऑफ लव जैसे आयोजनों पर रोक लगाना गलत है। इस दल का तर्क ये है कि महिलाएं सिर्फ घर की वस्तु ना बनी रहें। यहां पर संघ प्रमुख मोहन भागवत की उस पंक्ति को याद कर लेना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि  महिलाओं को कुशल गृहणि होना चाहिए। चलिए मान लिया जाए कि महिलाओं को कुशल गृहणि नहीं होना चाहिए तो क्या उन्हें किस्स ऑफ लव होना चाहिए।

क्या यही एक दरवाजा है जो स्त्रियों को आजादी का रास्ता दिखा सकता है और नाहक प्रेम को लिप लॉक से जोड़कर देखा जा सकता है।

वामपंथी छात्र संगठन और छात्र इस बात से नाराज हैं कि किस्स ऑफ लव कार्यक्रम को क्योंकर रुकवा दिया गया। इस आयोजन को रोकवाने की हिमाकत करने वालों को अब ये छात्र सबक सिखाने पर तुले हैं।इसके बाद से कमसकम दिल्ली में जो दृश्य उमड़ा है कि पूछिये मत।

जो लोग लिखकर या मौखिक विरोध कर रहे हैं उन्हें रूढिवादी करार दिया जा रहा है। लेकिन सवाल ये उठता है कि किस ऑफ लव का विरोध करने वाले अगर रूढिवादी हैं तो फिर इसका समर्थन करने वाले खुद ब खुद प्रगतिशील हो गए! लेकिन पश्चिम से आए इस तरह के हौव्वे का फालोवर होना अगर प्रेगतिशील होना है और इससे अगर रत्ती भर भी औरत की आजादी जुड़ी है तो फिर इन्हीं लोगों से ये पूछा जाना चाहिए कि सेक्स से जुड़े बाकी मुद्दों पर ये लोग किस कोने में जाकर सो जाते हैं। क्या ऐसे समुदाय के लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि इस देश में आज भी मासिक धर्म और मेनोपोज जैसी बातों पर चर्चा तक नहीं होती जिसका सीधा संबंध हमारे रिश्तों से है और इसे खामखा सेक्स और स्त्री के अंग से जोड़कर देखा जाता रहा है।

जिस देश में सैनिटरी नैपकीन तक को खरीदने में शर्म को चस्पा कर दिया गया है उस देश में किस्स ऑफ लव को लेकर आंदोलन हो रहा है। यह देखकर थोड़ी हैरानी भी होती ही और हास्य भी उभरता है कि यह किस किस्म का मूठ है जो प्रगतिशीलता का चोला पहनने वाले लोग समझ नहीं पाते। कोई इस बात की वकालत क्यों नहीं करता कि गांवों कस्बों में महिला के लिए शौचालय होना कितना आवश्यक है।
भारत में एक अजीब किस्म की हिप्पोक्रेशी देखी जाती है। सैनिटरी नैपकीन से लेकर मांस मच्छी तक काली पन्नी में बेची जाती है जिसकी वजह ये होती है कि सैनिटरी नैपकिन निहायत निजी अंग और शारीरिक इस्तेमाल के लिए होती है और मांस मच्छी में जल्दी नजर लगने की एक पुरानी कहावत है।कहते हैं अगर मांस मच्छी खरीदते वक्त किसी ने उसपर नजर गड़ा दी तो बाद में खाने वाले के पेट में दर्द हो जाता है। यह बात इतनी ताकिद से पूरे देश में रटाई गई है कि चाहे आप बिहार में हों कि उत्तरप्रदेश में मध्यप्रदेश में हों कि दिल्ली में आपको ये वस्तुएं काली पन्नी में ही दी जाएंगी।

सैनिटरी नैपकिन तो जब आप खरीद रहे होते हैं तो जाने कितनी सकपकाहट होती है तिसपर दुकानदार के सिरपर तो बोझ ही गिर जाता है। आप ना तो उसके मूल्य पर ठीक से बात कर सकते हैं ना ही क्वालिटी पर आप बोलेंगे और वो झप से काली पन्नी या ग्रे पैकेट में आपको पकड़ा देगा।
ऐसे ही देश में लिप लॉक करते युवा सड़कों पर घूम रहे हैं। यह संदेश किसी एक खास राजनीतिक दल को पहुंचानी है या आधी आबादी को यह समझ से परे है। प्रेम और चुम्बन गलत नहीं है लेकिन इसके जरिए जिस स्त्री आजादी की बात की जा रही है वह निस्संदेह गलत है। एक भ्रामकता है ठीक उसी तरह से जब किसी पुरुष को यह कहा जाता है औरत की तरह चूड़ियां पहन कर घर में बैठो।

औरत और मर्द का फर्क अलग है वहां चूड़ी का कोई अर्थ नहीं बैठता क्योंकि चूड़ी महज शृंगार का विषय है ताकत और कमजोरी का नहीं।
हमारे हां आज भी मासिक धर्म जैसे विषय पर कोई चर्चा नहीं होती। दफ्तरों में महिलाओं के लिए इस विषय पर किसी छुट्टी का इंतजामम नहीं है जबकि, हमारे जीवन में इसका क्या योगदान है ये सब लोग जानते हैं। हम आप सब इससे जुड़े हैं लेकिन बा खुदा कभी जो घर के किसी पुरुष के समक्ष यह बात कोई कह दे। अंगोछा वगैरह तो आज भी खुले में सुखाने के लिए ना जाने कितना संघर्ष इस देश में महिलाओं को करना पड़ता है।
वस्तुत: इस देश में दो देश बसते हैं एक भारत और एक इंडिया और इस किस ऑफ लव जैसे समारोह जिसे आंदोलन बनाने की धमकी दी जा रही है उसे इंडिया का हिस्सा मान लेना चाहिए नहीं तो तथाकथित प्रगतिशील (इलिट) लोग जीने नहीं देंगे।


वैसे आज जब बाजारवाद इतना हावी है तो ये नहीं मानना चाहिए कि तमाम राजनीतिक दलों के उपर जो बाजार है ये उसका खेल भी हो सकता है क्योंकि बाजार के हाथ की कठपुतली तो औरत ही है। 

3 comments:

PD said...

एक भूल सुधार - बैंगलोर नहीं अर्चना, कोच्ची..

Unknown said...

WONDERFUL THOUGHTS... LEKIN ITNA LOG LIKH KAISE LETE HAIN.....?????

Christine Walter said...

Thanks for sharing such an amazing content. Really loved to read such content. Keep posting such content in future as well.
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