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Tuesday, April 29, 2008

फासले


एक अजीब सन्नाटा उतर रहा था
तमाम शोर के बावज़ूद
मेहफ़िल में तनहाई पसर रही थी
शायद ये मेरे और उसके बीच
फासले पनपने का असर था
सबने चुना था अपना अपना कोना
असर से बचने के लिए
लेकिन जो आंखों में उतर रहा था
उससे कहां बचा जा सकता था
अंधेरा तो अपने आप में भारी होता है
अलग अलग रंगों को ढापने के लिए
उसे ज्यादा जद्दोजेहद नहीं करनी होती
वह होता है एक विशालकाय जानवर की तरह
अपने पदचाप से रौशनी और रंगों का
विनाश करता हुआ आगे बढ़ता है
लेकिन इसके बाद

जहान में फिर से फैल जाती है रौशनी
शायद प्रकति में कुछ टिकता नहीं
गुजर जाता है.....

3 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

लेकिन इसके बाद
जहान में फिर से फैल जाती है रौशनी
शायद प्रकति में कुछ टिकता नहीं
गुजर जाता है.....

बेहद प्रभावी प्रस्तुति..

***राजीव रंजन प्रसाद

अजय कुमार झा said...

jeevan kee shaashvat sachaee se rubaroo karaatee kavitaa achhee lagee. likhtee rahein,

Udan Tashtari said...

उम्दा.