(भागलपुर में हुए 1989 के सांप्रदायिक दंगे के छह साल बाद लिखी गई गई कविता....इसे पिछले साल मोडिफाई किया गया....और आज मेरा कोना पर चस्पा रही हूं......)
गेरुआ तितली ने अपना डेरा बदल लिया है
वो आज कल नहीं आती है
खां साहेब के बंगले के पिछवाड़े वाले बगीचे में
जबसे सुनी है उसने
फसाद की सुगबुगाहट
अपना डेरा बदल लिया है उसने
राम बाबू के चबूतरे पर भी नहीं जाती वह
जहां गमले में फैले सुर्ख गुलाबी लक्ष्मण बूटे से,
उसकी खूब छनती थी
वो दृश्य अब ओझल है पूरी तरह से
क्योंकि गेरुआ तितली ने बंद कर दिया है इधर भी आना
क्या तितलियों का भी कोई धर्म होता है
वो भी कौमों को जानती है
मजहबी नफरत का अंदाजा है उसे
क्या उसे लगता है
दो कौमों की लड़ाई से
उसे भी खतरा है
जो उसने बदल लिया है अपना डेरा
क्या वो जानती है
फसाद शुरू हुआ तो
खां साहेब उस गेरुआ रंग वाली तितली को भी नहीं बख्शेंगे
क्योंकि ये सबूत हो सकता है उसके गैर मजहबी होने का
क्या खां साहेब कत्लेआम के वक्त अपने बगीचे की उन कलियों की फिक्र बिल्कुल नहीं करेंगे....
जो तितली की गैरमौजूदगी में अपनी रंगत खो देंगी
गेरुआ रंग वाली तितली क्यों नहीं लक्ष्मन बूटे पर ही बसा लेती है अपना स्थाई डेरा
रामबाबू से तो उसे नहीं डरना चाहिए
वो तो गेरुआ के हिमायती होंगे!
लेकिन तितली को डर है उनसे भी
इसलिए बदल लिया है उसने
अपना डेरा
पढ़ लिया है उसने राम बाबू का मन भी
दरअसल कौम से नहीं
खतरनाक इरादों से डर गई है वो
जो राम बाबू में भी उतनी ही है जितनी खां साहेब में.....
4 comments:
अर्चना जी,
गेरुआ तितली एक सशक्त रचना है। रंग और तितली आपकी कलम के माध्यम से एक कटु सत्य को समर्थ शब्द दे पाने में सफल हैं। बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
ये आंखो देखा, और भुगता हुआ सच है...आपका बड़ा शुक्रिया रचनाओं को हमेशा प्रतिक्रिया की जरूरत होती है...
सशक्त रचना.....
jayardast hai..ab yah dhartee titlee, bachche aur larkiyon ke liye kafi darawani ho gayee hai.
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