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Saturday, November 19, 2011
कहां जा रहे हैं हम?
दुनिया
जैसे चीटीयों की कतार
दीशाहीन...
मंजिल का पता नहीं
बस! रास्ते, रास्ते और रास्ते
एक तलाश बाहर ही बाहर
एक भटकाव भीतर ही भीतर
कोई तालमेल नहीं
अनवरत रास्ते
अजीब गोलाई लिए
घूमते पथ,घुमावदार रास्ते
कभी मिलती नहीं वो मंजिल
कभी पूरा ना वैसा ख्वाब
जैसे चकाचौंध दुधिया रौशनी के बीच
झांकती काली परछाई
नव धनाढ्य का जीवन
जैसे चीटीयों की कतार
अनंत तक जाती हुई
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2 comments:
बस चलते ही जा रहे हैं .... अच्छी अभिव्यक्ति
बेहतरीन प्रस्तुति।
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