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Sunday, May 17, 2009

लड़की का नाम क्या?

दिल्ली के क्नॉट प्लेस में एक घटना हुई...दो महिलाएं ऑटो में बैठी-बैठी जल गईं...पता नहीं कैसे...और हर उस घटना की तरह इस 'कैसे' का पता कभी नहीं चल पाएगा। दरअसल, मेरा उस घटना पर कुछ नहीं कहना है....
हम यहां जो कहना चाह रहे हैं वो ये कि उन दोनो महिलाओं में से एक महिला की माताजी का नाम बिलासी देवी है...
आश्चर्य के बीच हास्यास्पद स्थिति.... अदभुत। मुझे सालों पुरानी वो बात याद आ गई...अरे लड़की तो हुई है...उसके नाम पर इतना क्या सोचना...रख दो कुछ भी सोमविरया...बुधिया...
उस माताजी का नाम शायद इसी मानसीकता का उदाहरण कहा जा सकता है...वैसे भी महिलाओं को उसके नाम से कहां जानते हैं लोग...जबतक छोटी रहीं..तब तक ऐसे ही कुछ पुकार लिया...बड़ी हुईं तो फलान की बेटी....शादी हुई तो फलान की बीवी..और फलान की बहू....और अम्मा बन गईं तो फलान की अम्मा....
लेकिन वक्त बहुत तेज़ी से बदल रहा है...इस मानसीकता से लोग जल्दी उबर जाएं तो बेहतर होगा...

13 comments:

V said...
This comment has been removed by the author.
V said...

यह हमारे समाज का दुर्भाग्य ही है सामंती तौर तरीकों से अब तक उबर नहीं पाया है, और न ही किसी भी स्तर पर इसे ठीक करने का प्रयत्न किया गया...
आपने इस छोटी सी किन्तु गंभीर समस्या की ओर ध्यान दिया, उसे शब्दों के माध्यम से उकेर कर ब्लॉग जगत पर लाने का साहस कर पायीं! उसके लिए आपको बधाई!

अभिषेक मिश्र said...

Vajib soch.

Gaurav Pandey said...

aapki baat me dum hai.

Udan Tashtari said...

क्या कहा जाये!!

Rachna Singh said...

bahut sahii baat likhi haen aap nae

दिनेशराय द्विवेदी said...

सही है नाम से जानी जानी चाहिए लड़कियाँ।

विजय तिवारी " किसलय " said...

अर्चना जी
आपकी बात सच है, परन्तु नारी शक्ति का आगे आना भी जरूरी है अन्यथा वह अपने नाम या अस्तित्व से कम ही पहचानी जायेगी , जैसा कि आपने कहा.
- विजय

ghughutibasuti said...

आपकी बात सही है, वैसे पुरुषों के भी नाम ऐसे ही रख दिए जाते थे। स्त्री व नाम पर मैंने भी

>एक पोस्ट
लिखी है।
घुघूती बासूती

वीनस केसरी said...

राही मासूम राजा जी का उपन्यास आधा गाँव पढ़ रहा हूँ जिसके शुरुआत में इस विषय पर कहा गया है

है न सुन्दर संयोग

वैसे नाम तो पुरुषों के भी अंड बंड होते है
वीनस केसरी

Unknown said...

दरअसल बीते वक्त में नामकरण के पीछे भी सामाजिक मानसिकता और समाज में परिवार की स्थिति का बहुत फर्क पड़ता था। खासकर निचले वर्ग में जानबूझकर ऐसे नाम रखे जाते थे। नामकरण संस्कार करने वाले ब्राम्हण होते थे। अगर आप गौर करें तो किसी ऊंचे वर्ग के आदमी या और का नाम आपको ढूंढने से भी ऐसा नहीं मिलेगा। कालांतर में हालात बदलते गए। अब ऐसा नहीं है क्योंकि अब लोग खुद ही अपने बच्चों का नाम रख लेते हैं। जब यह अधिकार अपने हाथ में आ गया तो भला कौन अपने बच्चे का नाम बुधुआ, कलुआ रखना चाहेगा।

L.Goswami said...

sahmat hun aapse ..maine bhi is vishay me kuchh likha hai http://sanchika.blogspot.com/2009/04/blog-post_25.html

रंजन (Ranjan) said...

वैसे हमारे यहां पश्चिमी राजस्थान में पुरुषों के नाम भी ऐसे ही रखे जाते ्हैं...