रेखा...भगवती चरण वर्मा का वो उपन्यास जिसे पढ़ने का मौका मुझे कई बार मिला लेकिन हर बार किसी न किसी वजह से टल गया... रेखा समाज की परतों को खोलती एक अदभुत रचना है...जो हरयुग में अपनी शसक्त मौजूदगी दर्ज कराती रहेगी...
लेकिन दिक्कत ये कि जब मैने इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया, ठीक इसी समय स्टार प्लस पर एक प्रोग्राम शुरू हुआ सच का सामना...दोनो की विषयवस्तु एक, समाज का शारीरिक सच...
रेखा और सच का सामना में हिस्सा ले रही प्रतियोगियों की सच्चाई में फर्क सिर्फ इतना कि रेखा में भगवती चरण वर्मा जी ने जब-जब रेखा को शरीर के लिए कमजोर होते हुए दिखाया है...उसके तुरंत बाद रेखा के तर्क रखे हैं...रेखा क्यों बार-बार किसी पुरुष से संबंध बना लेती है, इसका कारण भी बताया जाता है...हालांकि हर दूसरे पल रेखा को लगता है कि वो गलत कर रही है लेकिन हर अगले पल वो वही करती है...हालांकि, सच का सामना के प्रतियोगी जब-जब सच को बयां करते हैं तब-तब वो बड़े भावुक हो जाते हैं...उन्हें पश्चाताप होता है या नहीं ये पता नहीं...लेकिन चेहरे पर ऐसी लकीरें जरूर खिंच जाती है कि जैसे अगर पैसे का मोह न हो तो वो कभी इस सच को बयां करे ही नहीं...अमूमन समाज में ऐसे सच को बयां करता भी कौन है???
वैसे जीवन की कईएक ऐसी सच्चाई होती है जिसे हम कभी बयां नहीं करना चाहतें...और करते भी नहीं हैं...
पश्चिम की नकल बताई जा रही इस धारावाहिक को बंद करने की मांग उठ रही है...संभव है कि इस प्रोग्राम का पर्दा गिर जाए...अगर ऐसा हुआ तो ये ठीक वैसे ही होगा जैसे कूड़े को बुहार कर दरी के नीचे छिपा देना...
ये बता पाना बड़ा कठिन है कि अगर हम पर्दे पर इस तरह के सच को देखने सुनने लगें तो हमारा क्या होगा? हमारे समाज का क्या होगा? हम पर कितना गलत असर पड़ेगा?
एक बड़ा सवाल यहां ये भी उठता है कि क्या हम पर और हमारे समाज पर सबसे ज्यादा असर टीवी का ही पड़ता है? सच का सामना में जो सवाल पूछे जा रहे हैं और जो उसके जवाब दिए जा रहे हैं, उसका हमपर असर पड़ सकता है ये तर्क उनलोगों की तरफ से दिए जा रहे हैं जो लोग इस प्रोग्राम को बंद कराना चाहते हैं। शायद उन्हें लगता है कि प्रोग्राम बंद होने के बाद समाज की तमाम ऐसी विकृतियां खत्म हो जाएगी...ऐसा करना किसी बुरी चीज को देखकर अपनी आंखे बंद कर लेने जैसा है... हर समाज की अपनी सच्चाई होती है...उसके अपने संस्कार होते हैं...
पांच प्रतियोगयों में अभी तक किसी ने ऐसा जवाब नहीं दिया है कि वो पति या पत्नीव्रता हैं...वो पर स्त्री और पर पुरुष के बारे में सोचते नहीं...ये उनकी अपनी सच्चाई है...ऐसा नहीं है कि एक ने दूसरे से सुन कर, सीख कर कुछ कहा है। सबके अपने अपने अनुभव हैं। ये हमारे बीच के लोग हैं और यकीनन थोड़े हिम्मती भी...वरना, कहां लोग अपनी ज़िंदगी के निजी पन्नों को खोल पाते हैं...ये साहस सबके पास नहीं होता...इसके लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए...और उन्हें अपने से अलग या भिन्न समझने की बिला वजह कवायद नहीं करनी चाहिए...
इतनी हिम्मत तो रेखा में भी नहीं दिखती...वो भी जब पर पुरुष के साथ संबंध बना कर लौटती है तो अपने पति को नहीं बताती...हालांकि इस कोफ्त में वो रात भर जगती है...अपने आंसुओं से अपने बुजुर्ग पति के पैर धोती है...लेकिन कभी बता नहीं पाती...अपने आप में सिर्फ इतना कहती है..शरीर का अपना धर्म होता है....वो मन से हमेशा अपने पति की होती है लेकिन शरीर के लिए न जाने कहां कहां चली जाती है...यूं कहें कि कहां नहीं चली जाती है...पाठक अपने तरीके से रेखा को बयां करते हैं...रेखा आत्मिक रूप से जितनी पवित्र है शरीर को लेकर उसकी मानसिकता उतनी ही घटिया...लेकिन आदमी तो शरीर और मन का मेल है...वो पूरा ही तभी होता है...ये आप पर निर्भर करता है कि आप किसे तवज्जो देते हैं? शरीर को आत्मा को दिमाग को? या फिर रेखा की तरह समय के साथ साथ अलग अलग चीजों को...
रेखा जमाने पहले लिखी गई है...सच का सामना आज का सच है...लेकिन दोनो में रत्ती भर का फर्क नहीं है...क्यों??? शायद समाज से बड़ा होता है व्यक्ति...व्यक्ति जो प्रकृति का हिस्सा है...और रेखा के शब्दों में शरीर का अपना धर्म होता है....समाज का अपना...और सच दोनो है...जो अलग अलग समय पर तवज्जो पाता है...
सच का सामना....में जो प्रतियोगी आते हैं अगर उन्हें अपना सच बयां करने में आपत्ति नहीं है तो हमें क्या परेशानी हो सकती है, ये समझ से परे है...रही बात ये कि इसका समाज पर बड़ा बुरा असर पड़ेगा..बच्चे बिगड़ जाएंगे, हम बिगड़ जाएंगे.. तो ऐसा भी नहीं होता है...देश में पिछले दशक में ना जाने कितने धार्मिक चैनल खुले हैं लेकिन उस तेज़ी में क्यो लोग धार्मिक हुए हैं???
15 comments:
बहुत सुंदर लिखा आपने
YAH SAMAAJ KAA SACH HOGAA PAR AISE SACH KO PRASTUT KARANE KADANG SAHI HONA CHAHIYE KYOKI SIRF SHAREER MAN SE BADA NAHI HOTA SO WAH MAN SE PAWITRAA HAI ISAKA MATALB KYA? JAB KOEE AADAMI MAN SE PAWITR HOGA ISAKA MATLAB WAH SHARIR SE BHI PAWITRA HONE KI PUREE KOSHISH KAREGA......PATA NAHI KIS TARAH KI MAANSIKATA HAI KI SHARIR KI BHUKH MAN KI BHOOKH SE BADI KAISE HO SAKATEE HAI ........MUJHE SAMAJH ME NAHI AATA ...
सत्य कह रही हैं आप...सुंदर लेख
सही विश्लेषण .. अच्छी पोस्ट !!
एक स्वस्थ व्यक्ति आकर्षक व्यक्तित्व के विपरीतलिंगी की ओर आकर्षित होता ही है। इसमें कुछ भी बुरा नहीं। लेकिन मनुष्य को मनुष्य बनाने में सेक्स पर नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण रोल रहा है और रहेगा।
अवैध सम्बन्ध चाहे जिस कारण से हों, aberrations ही हैं और हमेशा से रहे हैं। उन सारी बुराइयों के साथ जो इनको जन्म देती हैं, अवैध सम्बन्धों को भी इस तरह केन्द्र में ला देना मुझे तो अनुचित ही लगता है। अपवादों की इतनी फिक्र क्यों जब कि उघाड़ने और सुलझाने को तमाम समस्याएँ पड़ी हुई हैं? क्या केवल मानस को झटका देकर त्वरित और लोकप्रियता (?) पाने के लिए?
हम्म.. TV का प्रोग्राम अच्छा है. जहां एक तरफ खूब सारा पैसा मिलेगा वहीं दूसरी तरफ ढीठ बनकर बेहयायी बखान कर समाज के भी बारे न्यारे हो जाएंगे.
सही कहना है आपका..
बात आपकी बिल्कुल सही है अर्चना। यहां तक आपसे सहमत होने में दिक्कत नहीं है। लेकिन जब विश्लेषण इससे आगे बढ़ता है तो एक सवाल उठता है कि सच क्या सिर्फ शरीर का ही है...इस शो पर आपत्ति करने वालों का नजरिया है कि बेडरूम लाइफ के सच पर ही इतना जोर क्यों...हमारी जिंदगी बेडरूम के बाहर भी होती है...उसमें भी तो बहुत से ऐसे सच हैं जिन्हें हम दरी के नीचे छिपाए रहते हैं...
प्रोग्राम मे आने वाले प्रतियोगियो का एक सच यह भी है कि वे या तो पैसे के लिये उस सच का बयान कर रहे है जो शायद किसी भी परिस्थिति मे उन लोगो के सामने (शायद परिजन !!)नही करते. वास्तव मे यही सबसे बडा सच है. दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि वे नकारात्मक ढंग से लोकप्रियता (?) अर्जित करना चाहते है.
उससे बडा सच तो यह है कि समाज मे वे फिर से सम्मानित रहेंगे और उन्हे अपने किये पर कोई पछतावा नही होगा. समाज भी उन्हे आसानी से आत्मसात करेगा. और उनको असामाजिक घोषित किया जायेगा जो शादी कर चुके है पर उनके गोत्र नही मिलते.
कार्यक्रम चले या न चले पर सच तो यही है.
अच्छे विश्लेषण के लिये बधाई.
अर्चना जी आपने प्रश्न तो सही उठाया है, किसी भी मुद्दे के सही विश्लेषण के लिए दोनों तरफ़ के पहलुओं को जानना ज़रूरी है, आपने दूसरे पहलु से अवगत कराया।
किंतु समाज में जो कायदे क़ानून बनाए गए हें उनकी अपनी अहमियत है, वे एक सभ्य समाज का निर्माण करते हें, जहाँ एक स्त्री और पुरूष के बीच विश्वास का रिश्ता होता है, जहाँ वासना पर संयम की जीत होती है। कोई अपने घर में क्या कर रहा है, इससे समाज को तब तक फर्क नही पड़ता जब तक मामला घर तक सीमित रहे, समाज को संशय में न डाल दे। यह सब घर तक ही सीमित रहे तो बेहतर है।
बेहतरीन आलेख..अच्छा लगा.
जब विचार नहीं होता तो आदमी कूडे में हाथ भी डाल लेता है वैसा ही हो रहा है इस टीवी पर.
http://parshuram27.blogspot.com/
ओम, पूरे आलेख में यही तो बताने की कोशिश हुई है कि मन और शरीर सर्वथा एक नहीं होता...ना हो सकता है...आप थोड़ा विश्लेषन करेंगे तो इसकी बारीकी समझ पाएंगे...
एक अच्छा विश्लेषण किया है आपने ...दोनों पक्ष रखे
वर्मा जी की यह उपन्यास 'रेखा' मैंने पढ़ी है... उनकी लेखनी में एक गज़ब का उद्वेलन है... वो शैंपू किये हुए बाल की तरह लगती है जिधर सर झुकाओ मांग फटता दिखाई देता है... जबरदस्त तर्क से बोलती बंद कर देते है... उनकी चित्रलेखा भी पाप और पुण्य पर विश्लेषण करती है... शरीर सत्य है... और मन और शरीर का तालमेल कम ही लोग बिठा पाते है...
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