माना जाता है वही लिखते हैं जिनकी भाषा अच्छी हो। जिनके पास लिखने का सार्टिफिकेट हो। इसलिए अख़बार और मैगजीन में अधिकांश वही लोग लिखते हैं जिन्हें माना हुआ लेखक माना जाए। या फिर आप उस अख़बार के संपादक या संवाददाता हों। लेकिन इसके समानांतर वो लोग भी लिखते रहे हैं जिन्हें भाषा की ख़ास जानकारी नहीं होती। जिन्हें भी लगता है कि कुछ लिखा जाए वो लिखते हैं। डायरी लिखते हैं। डायरी में छिटपुट कविताई भी होती है। शेर और ग़जल भी लिखे जाते हैं। आजकल लोग डायरी की जगह ब्लॉग पर लिखते हैं। लेकिन कविता कहानियों और अपनी आपबीती के अलावा भी लेखन होता है। वैसा लेखन जिसकी समाज की जरूरत के लिए होता है और ये माना जाता है कि मेनस्ट्रीम मीडिया में इसे जगह नहीं मिलेगी। जमीन आंदोलन से लेकर महिला उत्पीड़न और तमाम वैसे मामले जिससे टीवी को टीआरपी और अख़बार को सर्कुलेशन नहीं मिलने की आशंका दिखती है उसे स्पेस देने कोताही की जाती है। लेकिन जन समस्या को सरकार और प्रशासन तक पहुंचाने के लिए भी लेखन होता है। कई बार समाजिक संस्थाओं से जुड़े लोग अख़बार निकाल कर प्रशासन शासन तक लोगों की बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं। ख़बर लहरिया,मानुषी, चरखा,इसी श्रेणी के अख़बार और मैगजीन हैं। ख़बर लहरिया कुछ ऐसी महिलाओं ने निकालना शुरू किया था जिनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता कि वो अख़बार का मतलब भी समझती हों। लेकिन अपनी समस्या को सरकार तक पहुंचाने के लिए महिलाओं ने हस्तलिखित अख़बार निकालना शुरू कर दिया। आजकल ब्लॉग पर भी इस तरह का लेखन चल रहा है। ब्लॉग मेन स्ट्रीम मीडिया का सक्रिय विकल्प बनकर उभरा है। ब्लॉग पर वो सब कुछ लिखने की स्वतंत्रता है जिसे अमूमन अख़बारों में पॉलिसी का हवाला देकर नहीं छापा जाता। इसलिए वैसे लोग भी जिनके पास अपनी बातें कहने अपने विचार रखने के लिए सक्रिय माध्यम हैं वे लोग भी ब्लॉगिंग कर रहे हैं। कई लोग जो न्यूज चैनल में काम कर रहे हैं औऱ कई लोग जो अख़बारों में काम कर रहे हैं ब्लॉग लिखते हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह ये है कि किसी भी अख़बार या न्यूज चैनल्स में आपको वो कहने या बताने की छूट नहीं होती जो आप कहना चाहते हैं। हो सकता है कि लोकलुभावन बजट पर आपकी राय कुछ और हो लेकिन जब आप अख़बार के लिए लिखते हैं टीवी के लिए लिखते हैं तो आपकी भाषा में वो सब नहीं होता। आपकी लेखनी आपकी आवाज़ में वो बातें नहीं आ पाती क्योंकि हर अख़बार और न्यूज चैनल की अपनी पॉलिसी होती है। वैसे भी अब पत्रकारिता का समाजसेवा से कोई लेना देना नहीं होता। ख़बर जो बिकती है उसे बार बार बेचा जाता है। चाहे वो दर्दे डिस्को के शाहरुख खान हों या फिर राखी सावंत का कोई नया एलबम। अभी अभी होली बीती है। शायद ही कहीं किसी अख़बार के किसी कोने में या टेलीविजन के न्यूज़ चैनल्स या फिर रेडियो पर ये बताया गया हो कि गांव के गरीब किस तरह से फगवा मनाते हैं। लेकिन कई ब्लॉग पर आपने देखा होगा कि गली कुचे के बच्चों ने कैसे होली खेली उसे तस्वीर सहित छापा गया। यह काफी अच्छा है कि वो लोग जिनमें कलम उठाने का जज्बा है ,माध्यम है लेकिन अपनी बात नहीं कह पाते वो ब्लॉगिंग कर अपनी बात कहते हैं। बड़ी बात यही होती है कि व्यवस्था से तंग है तो उसपर कुछ लिखा जाए। जमाना जिस तेज़ी से तकनीकी होता चला जा रहा है उसमें ब्लॉग मीडिया का एक महत्वपूर्ण वैकल्पिक माध्यम बन कर उभरा है। बड़ी संख्या में लोग ब्लॉग पढ़ रहे हैं। ऑन लाइन होने के कारण लोगों को पढ़ने में सुविधा भी होती है। अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए भी ये माध्यम काफी सशक्त है। खुला माध्यम होने के कारण इस पर सहज होकर लिखा जाता है। हालांकि अभी इसका उपयोग अभी उस रूप में नहीं हो रहा है जिससे आम लोगों की समस्या उन लोगों तक पहुंचे जो व्यवस्था बनाने वाले हैं। लेकिन जिन्हें वयवस्था से दिक्कत है वो इसे पढ़ रहे हैं। इसपर अपनी टिप्पणी छोड़ रहे हैं। अख़बार के मुकाबले यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी ज्यादा है। ज़ाहिर है जहां खुलापन है वहां लोग ज्यादा आएंगे और ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जाती है। पिछले दिनों कई ब्लॉगर्स ने गाज़ा पर हमले की जमकर निंदा की और इस पर लगातार लिखते रहे। लड़कियों की समस्याओं को रेखांकित करते रहने के लिए ब्लॉग पर खूब लिखा जा रहा है। हालांकि ये अलग बात है कि इसका असर ख़ास नहीं दिखा। लेकिन बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़े और विरोध के लिए सिर उठाया। ब्लॉग काफी नया माध्यम है लेकिन क्रांतिकारी माध्यम है इसे वैकल्पिक माध्यम के रूप में जबर्दस्त दस्तक मानिये।
साभार- जनसत्ता
6 comments:
इधर कुछ दिनों से आपके चिट्ठे पर कमेंट वाला आप्सन ढूंढ रहा था.. मगर नहीं मिल रहा था.. इसी चक्कर में आपकी मेल पता भी ढूंढा मगर वो भी नहीं मिला..
चलिये आपने लगा दिया.. इस वर्ड वेरिफिकेसन को भी हटा दें.. कमेंट करने में परेशानी होती है.. धन्यवाद..
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ.
लड़कियों की हिन्दी ब्लागिंग में ऐसी सक्रियता से मन बहुत गदगद है. बहुत बढ़िया है. कुछ और दोस्तों को ब्लाग लेखन से जोड़ना चाहिए.
जनसत्ता के इस आलेख को साझा करने का आभार.
सहमत हूं . वैसे विकल्प अच्छा भी होता है बुरा भी.
आप सभी का बहुत धन्यवाद...अतुल जी किस मायने में विकल्प बुरा हो सकता है मैं समझ नहीं पाई...प्लीज बताएं.....
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