बचपन पर नाना तरह की बातें याद आती है....और फिर लगता है कि छोटी ही अच्छी थी, बड़ी क्यों हो गई? लेकिन बड़े होने की थोड़ी खुशी भी है...वो इसलिए कि जब बड़ी हुई तो मै समझ पाई अपने पिता के दर्द को....कुछ दिन पहले घर होकर आई हूं.....वहां आज भी कुछ नहीं बदला है...वही इत्मिनान है....वहां लोगों के जीने का अपना अंदाज है....हमें वो ठहरे हुए मालूम पड़ सकते हैं.....ये लग सकता है कि छोटे शहरों में लोग बड़े ढीले ढाले हैं....लेकिन इसके बाद भी लोग बड़े ज़िंदादिल हैं.....एक छोटी सी कहानी हमें एक बड़े साहित्यकार ने सुनाई थी....एक विदेशी लड़का किसी पेड़ के नीचे बांसुरी बजा रहा था जैसे नीरो....आते जाते हुए लोग उसे देखते जा रहे थे....इस अंदाज़ में कि अरे भाई हमें देखो कितने परेशान हैं....और एक ये है कि अनजान से मुल्क में...कैसे चैन से बांसुरी बजा रहा है.. उस शख्स से नहीं रहा गया...उसने उसके पास जाकर पूछ ही लिया...अरे भाई क्या इस तरह पड़े हुए हो....कुछ करते क्यों नहीं....ऐसे कोई ज़िंदगी कटती है बताओ भला.....उस विदेशी लड़के ने पूछा....अच्छा बताओ तो नौकरी कर के क्या करूंगा....अरे भाई पैसे वैसे कमाओगे..खुशी से रहोगे...सुकून से जियोगे.....लड़के ने जवाब दिया.....और मैं अभी क्या कर रहा हूं???
ये कहानी मुझे हमेशा याद आती रहती है....मुझे अपने शहर (भागलपुर ,बिहार) के लोग कतई ठहरे हुए नहीं लगते, हां ये जरूर लगता है कि हम बड़े शहर वाले जरूरत से ज्यादा दौड़ लगा रहे हैं....और तो और कहीं पहुंच भी नही रहे.....लेकिन इस ज़िंदगी के भी मायने हैं.....शायद ज़िंदगी की हर सूरत अच्छी है....इसलिए इसे जीना चाहिये और दूसरों को भी जीने देना चाहिए.... अपने- अपने हिसाब से...जैसे नीरो...
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