जैसे कि सबकुछ पहले से तय था
एक- एक पात्र ने जैसे रटा हुआ था...
अपना-अपना संवाद
अपना-अपना किरदार
साफगोई से...
पूरे वक्त पर, सबने निभाई थी अपनी जिम्मेदारी
पूरे अदद से
अदना-कदना, औने-पौने सबने
हां, सबने तकरीबन छीले थे मेरे ज़ख्म
जैसे कि नीयति का साथ देने के लिए बाध्य हों सबके सब
जैसे कि तय था रामायण का घटित होना
राम का वनवास, सीता का धरति में समाहित हो जाना
तय था केतकि का जिद्द करना...
जनक का पुत्रमोह भी तय था
और शायद तय था श्रवण कुमार का मातृ-पितृ सेवा में विघ्न होना
लेकिन ये कौन है जो यूं खेल रहा है
शतरंज जिंदगी का?
पहले से ही क्यों तय होती हैं चीजें?
और अगर तय ही होता है सबकुछ
तो फिर ये भ्रम कौन फैलाता है...
कि करो-करो कर्म करो...
फल मिलेगा...
ये कौन सा कर्म है जो पहले से तय नहीं होता?
बताओ कोई, मैं उधेड़बून में हूं
6 comments:
बहुत सुन्दर विचारणीय पोस्ट लिखी है।रचना के माध्यम से अच्छा सवाल उठाया..
आध्यात्म की ओर एक यात्रा की शुरूआत है यह..
mere man ke ek prashna ko aapne bakhubi prastut kiya...bahut khoob....
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
http://kavyawani.blogspot.com/
BAHUT KHUB
SHEKHAR KUMAWAT
यही जान जाते तो जीवन तर जाता...
बहुत बढ़िया रचना!
शायद तय होता होगा भी.... कुछ करना .....उस वक़्त...उस लम्हे
खैर इस उधेड्बुन में हम भी रहते है। क्योंकि किस्मत वाली किताब अभी किसी के हाथ नही लगी। और भ्रम ही रहेगा। इसलिए सवालों को भूल जाओ, जिदंगी को जी जाओ। वैसे हमेशा की तरह अच्छा लिखा है।
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