मेरे लिए ये वक्त सबसे अफसोसजनक है। पिछले कुछ महीनों में मैंने जो जाना वो निस्संदेह वेदनायुक्त है। मैने दुनिया को हमेशा खूबसूरत अंदाज़ में देखा। हमेशा ये सोचा कि चलो बुरा हो रहा है तो कुछ अच्छा भी होगा...यहां नहीं,वहां अच्छा मिलेगा। ये नहीं वो अच्छा होगा। लेकिन ऐसा नहीं है....दुनिया दरअसल वही है जो मुझे हर कदम पर दिखती रही। दुनिया वो (अब मुझे लगता है) नहीं है जो मैं सोचती रही।
और इससे भी ज्यादा दुखद ये कि इस दौरान मुझे कई लोग मिले जिन्होंने मुझसे ये कहा है कि अपने को इस दुनिया में ढालो वरना बहुत दुखी रहोगी...मैने कई कोशिशें की....लेकिन ऐसा संभव नहीं है...मुझे बड़ी शिद्दत से ये महसूस होता रहा है कि मैं इस समाज के लिए अनफिट हूं...
हर कोई एक छलावा जीवन जी रहा है....पता नहीं वो कौन सी दौड़ है जिसमें हर कोई शामिल है...अव्वल तो ये कि इस बात कि ख़बर भी ज्यादातर लोगों को है कि दुनिया सेल्फिश और सेल्फ सेंटर्ड है, और फिर भी वो भाग रहे हैं...
लोगों से भरोसा इस कदर टूट चुका है कि खुद पर भी भरोसा नहीं रह गया...हर वक्त ये ख़ौफ कि पता नहीं अगला क्या पका रहा है....और अगले पलों में क्या हो जाए...ऐसा हुआ भी...मैं नहीं जानती कि जाने-अनजाने में मैने किसे क्या दिया...या लोग मुझे क्या अज्यूम कर लेते हैं...लेकिन कुछ लोगों का व्यवहार ऐसा है जिसके बारे में सोच कर भी मेरी रूह कांप जाती है...और अंत में ये कि ये समाज औरतों को अपनी जूती से ज्यादा कुछ नहीं समझता...और हम सब इसके पिछलग्गू भर हैं...दरअसल, हम, हमारा समाज कभी बदला ही नहीं था...आडंबर से लबालब जो समाज हमारे इर्द-गिर्द है वो मेरी समझ से परे है...
11 comments:
किसी ने कहा है कि हम जैसे समाज में जीना चाहते हैं अगर वो वैसा नहीं है तो हम उसे उस स्तर तक बनाने की कोशिश करें, ताकि आने वाली पीढ़ी तो उस समाज में चैन से जी सके .
बिलकुल सच......... हमारा समाज कभी नहीं बदला था, न बदला है.........
बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट........
मेरी रचनाएँ !!!!!!!!!
अर्चना जी, वक्त की क्या मुझे तो यह पूरा भारतीय उपमहाद्वीप ही किसी ऐसे शाप से ग्रस्त लगता है, जहाँ हर कहीं स्वार्थ सभी के जींस तक में पसर गया लगता है।
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अदभुत है मानव शरीर।
गोमुख नहीं रहेगा, तो गंगा कहाँ बचेगी ?
पढकर ऐसा लगा जैसे मैंने ही लिखी हो। सच्चाई लिख दी।
आपके विचार बिलकुल यथार्थपरक हैं। मुझे लगता है कि आपसे भी बहुत कम उम्र से निराशा की हदों को छू लिया था। पर आज भी कभी-कभार कोई व्यक्ति, कोई क़िताब, कुछ शब्द ऐसे मिल जाते हैं जो उठाकर फिर चला देते हैं। फ़िलहाल मझे निदा फ़ाज़ली का यह शेर याद आता है:-
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न ख़ुदको तुम,
थोड़ी-बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे।
चेतना निराशावादी दृष्टिकोण से नही आ सकती!
.....itana likhungi chahe kuchh ho jaye "KHUD PAR SE VISHVAS KABHI MAT KHOIYEGA"
nice post
maine apney blog per ek kavita likhi hai- roop jagaye echchaein- samay ho to padein aur comment bhi dein.
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
vasant ko mehsoos karne kaliye rooh chahiye, ehsas chahiye, vishwas chahiya. jo patjhar mein hi bhatakta rahega oose vasant ka kya ehsas hoga. vasant sabki zindgi mein aata hai zaroorat hai to bas ehsas ki. patjhar aur vasant ke antar ko samajhne ki. ab bhi aankhein kholo duniya utni badsoorat nahi hai jitna aap soch rahe ho. zindgi bahein pasare khari hai. nazar utha kar dekho...
vasant kabhi vichlit nahi hota. aasha ka hi doosra naam vasant hai.vasant par aarop lage hai par vasant hamesha bedag raha hai. vasant ko koi mehsoos na kar sake to isme vasant ka kya dosh. phir bhi vasant to vasnt hai, muskurayega, baharein layega phir haste huae dubara aane ke wade ke saath chala jayega. aah vasant to vasant hai... mehsoos kar sako to karo....hat bhagya vasant..aah.
post;psand aai.dhanywad|
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